प्यास बुझाने के लिए सिंध नदी में उतरते लोग सांझ सवेरे जिंदगी मौत से संघर्ष

Samwad news
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शिवपुरी जिले की बदरवास तहसील का छोटा-सा गांव कांकेर, जहां आज भी जीवन की सबसे बुनियादी जरूरत—पानी—एक सपने की तरह है। 21वीं सदी की तमाम सरकारी योजनाएं, घोषणाएं और बजट के दावे इस गांव की हकीकत के सामने बौने नजर आते हैं। यहां के 200 से ज्यादा आदिवासी लोग हर दिन अपनी जान हथेली पर रखकर सिर्फ पानी लाने निकलते हैं। यह कहानी सिर्फ पानी की नहीं, बल्कि सिस्टम की अनदेखी, आदिवासी उपेक्षा और जीवन-मौत के बीच झूलती उम्मीदों की है।
कांकेर गांव में सुबह की शुरुआत किसी शहर के लोगों जैसी नहीं होती। यहां न तो नल खुलता है, न कोई टैंकर आता है और न ही किसी हैंडपंप से पानी की धार बहती है। यहां की महिलाओं, बुजुर्गों और बच्चों को हर दिन कम से कम 1 किलोमीटर पैदल चलकर सिंध नदी तक जाना पड़ता है। लेकिन यह रास्ता आसान नहीं है। उन्हें उबड़-खाबड़ पगडंडियों, कंटीली झाड़ियों और गर्म पत्थरों के बीच से गुजरना पड़ता है। इसके बाद नदी के किनारे पहुँचकर वे पत्थरों के बीच अपने हाथों से गड्ढा खोदते हैं, जिससे बूंद-बूंद पानी इकट्ठा होता है।
कभी-कभी एक बाल्टी पानी भरने में घंटों लग जाते हैं। ये महिलाएं नंगे पैर चट्टानों पर चलती हैं, जो गर्मी में तपकर तवे जैसे हो जाते हैं। कई बार उनके पैर फिसलते हैं, जिससे वे चोटिल हो जाती हैं। लेकिन पीने के पानी की जरूरत ऐसी है कि दर्द सहकर भी वे वापस लौटती हैं—क्योंकि गांव में इंतजार कर रहे हैं बच्चे, बुजुर्ग और बीमार लोग, जिन्हें पानी की सख्त जरूरत होती है।

गांव में एकमात्र हैंडपंप है, लेकिन उससे निकलने वाला पानी लाल और दूषित होता है। स्थानीय निवासी कुसुम आदिवासी बताती हैं कि वह पानी पीने लायक नहीं है। “कई बार बच्चों को दस्त और बुखार हो जाता है। हमने कई बार पंचायत में, जनसुनवाइयों में गुहार लगाई लेकिन कोई सुनवाई नहीं होती,” कुसुम बताती हैं।

दूसरी ग्रामीण महिला, माया बाई कहती हैं, “हम तो पत्थरों से पानी निकालते हैं, सरकार को तो केवल कागजों में दिखता है कि सब ठीक है। हमें तो कई बार लगता है कि हम इस विकास का हिस्सा ही नहीं हैं।”
जब इस मामले में जिला पंचायत सीईओ हिमांशु जैन से बात की, तो उन्होंने कहा, “दिखवा लेते हैं, अगर वहां जमीन में पानी का स्रोत है तो ट्यूबवेल की व्यवस्था की जाएगी।” यह बयान सुनकर गांव के लोग ज्यादा आश्वस्त नहीं हैं। वे कहते हैं कि प्रशासन सिर्फ ‘दिखवा लेते हैं’ कहकर पीछा छुड़ा लेता है, लेकिन हकीकत में कोई अधिकारी वहां आता नहीं।

गांव में ना तो कोई टंकी है, ना जल जीवन मिशन का कोई फायदा दिखता है, और ना ही किसी जनप्रतिनिधि की रुचि है। पंचायत के रिकॉर्ड में गांव को ‘जलयुक्त’ घोषित किया जा चुका है, लेकिन ज़मीनी हकीकत इससे कोसों दूर है।
गांव की स्थिति इतनी भयावह है कि छोटे बच्चे भी अपनी छोटी-छोटी बाल्टियों के साथ नदी में पानी भरने जाते हैं। यह ‘पानी यात्रा’ उनके लिए एक खेल नहीं, बल्कि जिम्मेदारी बन चुकी है। कई बार छोटे बच्चे भी पत्थरों पर गिरकर चोटिल हो चुके हैं। गांव के बुजुर्ग कहते हैं कि पहले नदी में इतना झुककर पानी नहीं निकालना पड़ता था, लेकिन अब जलस्तर इतना नीचे चला गया है कि गड्ढा खोदे बिना पानी नहीं मिलता।

कांकेर गांव की ये स्थिति सिर्फ वहां के लोगों की नहीं, बल्कि पूरे सिस्टम की विफलता की प्रतीक है। अगर जल्द ही स्थायी समाधान नहीं निकाला गया, तो किसी दिन यह 'पानी यात्रा' किसी बड़े हादसे में बदल सकती है। गांव में ट्यूबवेल की掘ाई, नलजल योजना का विस्तार, और बरसात से पहले जलस्रोतों का निर्माण प्राथमिकता होनी चाहिए।
जल जीवन मिशन, हर घर जल योजना और अन्य जल प्रदाय योजनाएं देशभर में चल रही हैं। करोड़ों के बजट खर्च हो चुके हैं, लेकिन कांकेर जैसे गांव अभी भी इन योजनाओं के लाभ से वंचित हैं। सवाल ये है कि जब गांव की महिलाएं हर दिन जान जोखिम में डालकर पानी ला रही हैं, तो क्या जिम्मेदार अफसर और जनप्रतिनिधि कभी इन चट्टानों पर चलकर उनकी पीड़ा समझने आएंगे?
कांकेर गांव की कहानी एक चेतावनी है—सरकार के लिए, प्रशासन के लिए, और हम सबके लिए। अगर आज नहीं चेते, तो कल ये हालात और विकराल हो सकते हैं। यह सिर्फ पानी का संकट नहीं, यह जीवन का संकट है। और जीवन के इस संघर्ष में कांकेर के आदिवासी अकेले लड़ रहे हैं।
अपील करता है कि संबंधित प्रशासन तुरंत इस मुद्दे को गंभीरता से लेकर स्थायी समाधान की दिशा में ठोस कदम उठाए, ताकि कांकेर के लोग भी अपने घर में नल से पानी बहते देख सकें, और उन्हें जान जोखिम में डालकर ‘पानी यात्रा’ ना करनी पड़े।







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